रात के बाद वो सुब्ह कहाँ है दिन के बाद वो शाम कहाँ
जो आशुफ़्ता-सरी है मुक़द्दर उस में क़ैद-ए-मक़ाम कहाँ
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जिन ख़यालों के उलट फेर में उलझीं साँसें
थी तो सही पर आज से पहले ऐसी हक़ीर फ़क़ीर न थी
परछाइयाँ
मेरी आँखों ही में थे अन-कहे पहलू उस के
फिर बहार आई है फिर जोश में सौदा होगा
तिरे जल्वे तेरे हिजाब को मेरी हैरतों से नुमू मिली
सहर-ए-अज़ल को जो दी गई वही आज तक है मुसाफ़िरी
ध्यान की मौज को फिर आइना-सीमा कर लें
क्या क्या पुकारें सिसकती देखीं लफ़्ज़ों के ज़िंदानों में
कभी फ़ासलों की मसाफ़तों पे उबूर हो तो ये कह सुकूँ
मैं तो हर धूप में सायों का रहा हूँ जूया
नूर-ए-सहर कहाँ है अगर शाम-ए-ग़म गई