क़र्या-ए-वीराँ
झुलसे पेड़ जली आबादी खेती सूखी ख़िर्मन राख
हस्त-ओ-बूद का मदफ़न राख
गिरते बाम-ओ-दर के लिए गलियों का आग़ोश
जैसे ये दीवारों को थे कब से वबाल-ए-दोश
बार हटा तो आया होश
पनघट और चौपाल भी सूने राहें भी सुनसान
गलियाँ और कूचे वीरान
झोंके सूखे पत्ते रोलें बिखरी राख उड़ाईं
राख और पत्ते बन के बगूले अपना नाच दिखाएँ
और वहीं रह जाएँ
ये बस्ती अब तोड़ चुकी है हस्ती की ज़ंजीर-ए-गिराँ
और क़ुयूद-ए-ज़मान-ओ-मकाँ
वक़्त के डाकू चक्कर उस को बिसात मुताबिक़ लूट चुके
उस के लिए माहौल-ओ-फ़िज़ा के सारे बंधन टूट चुके
माज़ी-ओ-हाल भी छूट चुके
कौन आए जो आ कर इस में ज़ीस्त के रंग भरे
खेतों को सरसब्ज़ करे
गली गली और कूचा कूचा पनघट और चौपाल
खेलते बच्चों हँसती जवानी से कर दे चोंचाल
ज़िंदा कर दे माज़ी-ओ-हाल
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