घर था या कोई और जगह जहाँ मैं ने रात गुज़ारी थी
याद नहीं ये हुआ भी था या वहम ही की अय्यारी थी
एक अनार का पेड़ बाग़ में और घटा मतवारी थी
आस-पास काले पर्बत की चुप की दहशत तारी थी
दरवाज़े पर जाने किस की मद्धम दस्तक जारी थी
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दश्त-ए-बाराँ की हवा से फिर हरा सा हो गया
बस एक माह-ए-जुनूँ-ख़ेज़ की ज़िया के सिवा
सुब्ह-ए-काज़िब की हवा में दर्द था कितना 'मुनीर'
ग़ैर से नफ़रत जो पा ली ख़र्च ख़ुद पर हो गई
ख़्वाहिशें हैं घर से बाहर दूर जाने की बहुत
नवाह-ए-वुसअत-ए-मैदाँ में हैरानी बहुत है
इस शहर-ए-संग-दिल को जला देना चाहिए
उस का नक़्शा एक बे-तरतीब अफ़्साने का था
साए घटते जाते हैं
उन से नयन मिला के देखो
अच्छी मिसाल बनतीं ज़ाहिर अगर वो होतीं
मिरे पास ऐसा तिलिस्म है जो कई ज़मानों का इस्म है