सड़कों पे बे-शुमार गुल-ए-ख़ूँ पड़े हुए
पेड़ों की डालियों से तमाशे झड़े हुए
कोठों की ममटियों पे हसीं बुत खड़े हुए
सुनसान हैं मकान कहीं दर खुला नहीं
कमरे सजे हुए हैं मगर रास्ता नहीं
वीराँ है पूरा शहर कोई देखता नहीं
आवाज़ दे रहा हूँ कोई बोलता नहीं
Allama Iqbal
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ज़िंदा रहें तो क्या है जो मर जाएँ हम तो क्या
अपना तो ये काम है भाई दिल का ख़ून बहाते रहना
चाँद चढ़ता देखना बेहद समुंदर पर 'मुनीर'
सपना आगे जाता कैसे
क्यूँ 'मुनीर' अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा
बे-ख़याली में यूँही बस इक इरादा कर लिया
एक नगर के नक़्श भुला दूँ एक नगर ईजाद करूँ
दिल अजब मुश्किल में है अब अस्ल रस्ते की तरफ़
आँखों में उड़ रही है लुटी महफ़िलों की धूल
पी ली तो कुछ पता न चला वो सुरूर था
जादूगर
दिन अगर चढ़ता उधर से मैं इधर से जागता