मुसव्विर सब्ज़वारी कविता, ग़ज़ल तथा कविताओं का मुसव्विर सब्ज़वारी (page 1)
नाम | मुसव्विर सब्ज़वारी |
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अंग्रेज़ी नाम | Musavvir Sabzwari |
जन्म की तारीख | 1932 |
मौत की तिथि | 2002 |
वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया
थे उस के साथ ज़वाल-ए-सफ़र के सब मंज़र
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
सफ़-ए-मुनाफ़िक़ाँ में फिर वो जा मिला तो क्या अजब
रिश्तों का बोझ ढोना दिल दिल में कुढ़ते रहना
न टूट कर इतना हम को चाहो कि रो पड़ें हम
न सोचो तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
मिरे बच्चे तिरा बचपन तो मैं ने बेच डाला
मैं संग-ए-रह नहीं जो उठा कर तू फेंक दे
मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
किया न तर्क-ए-मरासिम पे एहतिजाज उस ने
किसी को क़िस्सा-ए-पाकी-ए-चश्म याद नहीं
ख़त्म होने दे मिरे साथ ही अपना भी वजूद
कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
इसी उमीद पे जलती हैं दश्त दश्त आँखें
हिसार-ए-गोश-ए-समाअत की दस्तरस में कहाँ
हमारे बीच में इक और शख़्स होना था
गुज़रते पत्तों की चाप होगी तुम्हारे सेहन-ए-अना के अंदर
फ़ैसला थे वक़्त का फिर बे-असर कैसे हुए
देख वो दश्त की दीवार है सब का मक़्तल
अज़ाबों से टपकती ये छतें बरसों चलेंगी
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
आँखें यूँ बरसीं पैराहन भीग गया
ज़रा सी देर जो ख़ौफ़-ए-दवाम ख़त्म हुआ
उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं
टूटते जिस्म के महताब बिखर जा मुझ में
तह-ब-तह दरिया के सब असरार तक वो ले गया
तबाह कर गया सब को मिरे घराने का