आँखें यूँ बरसीं पैराहन भीग गया
तेरे ध्यान में सारा सावन भीग गया
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देखो कोई ख़्वाब दिन ढले का
उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं
बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है
घिरा हूँ दो क़ातिलों की ज़द में वजूद मेरा न बच सकेगा
लगा है ऐसा कोई कासा-ए-सवाली हों
टूटते जिस्म के महताब बिखर जा मुझ में
न सोचो तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
हर साँस में मिस्मार खंडर टूटते रहना
रिश्तों का बोझ ढोना दिल दिल में कुढ़ते रहना
सफ़-ए-मुनाफ़िक़ाँ में फिर वो जा मिला तो क्या अजब
ख़त्म होने दे मिरे साथ ही अपना भी वजूद
जिस्म अपना है कोई और न साया अपना