फ़ैसला थे वक़्त का फिर बे-असर कैसे हुए
सच की पेशानी पे हम झूटी ख़बर कैसे हुए
Anwar Masood
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Jaun Eliya
Allama Iqbal
Wasi Shah
Faiz Ahmad Faiz
Mir Taqi Mir
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तह-ब-तह दरिया के सब असरार तक वो ले गया
देखो कोई ख़्वाब दिन ढले का
हवा रह में दिए ताक़ों में मद्धम हो गए हैं
न सोचो तर्क-ए-तअल्लुक़ के मोड़ पर रुक कर
कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
हमारी तहरीरें वारदातें बहुत ज़माने के बाद होंगी
मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
जिस्म अपना है कोई और न साया अपना
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
बिगड़ते बनते दाएरे सवाल सोचते रहे
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया