हमारे बीच में इक और शख़्स होना था
जो लड़ पड़े तो कोई भी नहीं मनाने का
Faiz Ahmad Faiz
Habib Jalib
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Ahmad Faraz
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Gulzar
Javed Akhtar
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मैं मुन्हरिफ़ था जिस से हर्फ़-ए-इंहिराफ की तरह
हुसैन ही था जो प्यासा उठा फ़ुरात से वो
जिस्म अपना है कोई और न साया अपना
ख़त्म होने दे मिरे साथ ही अपना भी वजूद
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
मिरे बच्चे तिरा बचपन तो मैं ने बेच डाला
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
थे उस के साथ ज़वाल-ए-सफ़र के सब मंज़र
मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
इसी उमीद पे जलती हैं दश्त दश्त आँखें
घिरा हूँ दो क़ातिलों की ज़द में वजूद मेरा न बच सकेगा
उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं