हिसार-ए-गोश-ए-समाअत की दस्तरस में कहाँ
तू वो सदा जो फ़क़त जिस्म को सुनाई दे
Faiz Ahmad Faiz
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घिरा हूँ दो क़ातिलों की ज़द में वजूद मेरा न बच सकेगा
मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
मैं एक पल की था ख़ुश्बू किधर निकल आया
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
जंगल मुदाफ़अत के हलकान हो गए हैं
कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है
अपने होने का कुछ एहसास न होने से हुआ
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
तह-ब-तह दरिया के सब असरार तक वो ले गया
बिगड़ते बनते दाएरे सवाल सोचते रहे
शहर का रोग है जिस सम्त भी बस जाएगा तू