इसी उमीद पे जलती हैं दश्त दश्त आँखें
कभी तो आएगा उम्र-ए-ख़राब काट के वो
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मैं एक पल की था ख़ुश्बू किधर निकल आया
मैं आँधी में रेज़ा रेज़ा इक फूल चुन रहा हूँ
उसी ने हिजरतें कुछ और भी बिताई थीं
हर साँस में मिस्मार खंडर टूटते रहना
वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया
तह-ब-तह दरिया के सब असरार तक वो ले गया
गुज़रते पत्तों की चाप होगी तुम्हारे सेहन-ए-अना के अंदर
मिरे बच्चे तिरा बचपन तो मैं ने बेच डाला
ज़रा सी देर जो ख़ौफ़-ए-दवाम ख़त्म हुआ
कड़े हैं कोस सफ़र दूर का ज़रूरी है
हमारी तहरीरें वारदातें बहुत ज़माने के बाद होंगी
घिरा हूँ दो क़ातिलों की ज़द में वजूद मेरा न बच सकेगा