जिसे मैं छू नहीं सकता दिखाई क्यूँ वो देता है
फ़रिश्तों जैसी बस मेरी इबादत देखते रहना
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बिगड़ते बनते दाएरे सवाल सोचते रहे
सजनी की आँखों में छुप कर जब झाँका
कई ज़मानों के दरिया-ए-नील छोड़ गया
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
देख वो दश्त की दीवार है सब का मक़्तल
किसी को क़िस्सा-ए-पाकी-ए-चश्म याद नहीं
मैं मुन्हरिफ़ था जिस से हर्फ़-ए-इंहिराफ की तरह
हमारे बीच में इक और शख़्स होना था
फ़ैसला थे वक़्त का फिर बे-असर कैसे हुए
हर साँस में मिस्मार खंडर टूटते रहना
शहर का रोग है जिस सम्त भी बस जाएगा तू
हिसार-ए-गोश-ए-समाअत की दस्तरस में कहाँ