जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
मैं तमाम लोगों से मिल चुका तिरी क़ुर्बतों की तलाश में
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हमारी तहरीरें वारदातें बहुत ज़माने के बाद होंगी
बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है
मैं संग-ए-रह नहीं जो उठा कर तू फेंक दे
घिरा हूँ दो क़ातिलों की ज़द में वजूद मेरा न बच सकेगा
टूटते जिस्म के महताब बिखर जा मुझ में
गुज़रते पत्तों की चाप होगी तुम्हारे सेहन-ए-अना के अंदर
शहर का रोग है जिस सम्त भी बस जाएगा तू
तबाह कर गया सब को मिरे घराने का
देखो कोई ख़्वाब दिन ढले का
हर साँस में मिस्मार खंडर टूटते रहना
मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
न टूट कर इतना हम को चाहो कि रो पड़ें हम