कनार-ए-आब हवा जब भी सनसनाती है
नदी में चुपके से इक चीख़ डूब जाती है
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आँखें यूँ बरसीं पैराहन भीग गया
तबाह कर गया सब को मिरे घराने का
तह-ब-तह दरिया के सब असरार तक वो ले गया
वो सर्दियों की धूप की तरह ग़ुरूब हो गया
मैं संग-ए-रह नहीं जो उठा कर तू फेंक दे
इक कुतुब-ख़ाना हूँ अपने दरमियाँ खोले हुए
टूटते जिस्म के महताब बिखर जा मुझ में
जो ख़स-ए-बदन था जला बहुत कई निकहतों की तलाश में
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
मैं संग-ए-रह हूँ तो ठोकर की ज़द पे आऊँगा
रिश्तों का बोझ ढोना दिल दिल में कुढ़ते रहना
मैं मुन्हरिफ़ था जिस से हर्फ़-ए-इंहिराफ की तरह