मिरे बच्चे तिरा बचपन तो मैं ने बेच डाला
बुज़ुर्गी ओढ़ कर काँधे तिरे ख़म हो गए हैं
Mir Taqi Mir
Javed Akhtar
Ahmad Faraz
Gulzar
Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Wasi Shah
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
Rahat Indori
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(424) Peoples Rate This
बदन के दीवार-ओ-दर में इक शय सी मर गई है
हवा रह में दिए ताक़ों में मद्धम हो गए हैं
जो गया यहाँ से इसी मकान में आएगा
मैं आँधी में रेज़ा रेज़ा इक फूल चुन रहा हूँ
घिरा हूँ दो क़ातिलों की ज़द में वजूद मेरा न बच सकेगा
आँखें यूँ बरसीं पैराहन भीग गया
फ़ैसला थे वक़्त का फिर बे-असर कैसे हुए
जंगल मुदाफ़अत के हलकान हो गए हैं
देख वो दश्त की दीवार है सब का मक़्तल
मैं मुन्हरिफ़ था जिस से हर्फ़-ए-इंहिराफ की तरह
अज़ाबों से टपकती ये छतें बरसों चलेंगी
गुज़रते पत्तों की चाप होगी तुम्हारे सेहन-ए-अना के अंदर