ऐसा भी कभी हो मैं जिसे ख़्वाब में देखूँ
जागूँ तो वही ख़्वाब की ताबीर बताए
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मैं भी शायद आप को तन्हा मिलों
दिल सँभाले नहीं सँभलता है
कहा था मैं ने खो कर भी तुझे ज़िंदा रहूँगा
बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई
दर कुंज-ए-सदा-बंद का खोलेंगे किसी रोज़
क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
अपनी कश्ती सर पे रख कर चल रहे हैं हम 'शहाब'
मैं सच से गुरेज़ाँ हूँ और झूट पे नादिम हूँ
होते होते मैं पहुँच जाता हूँ अपने आप तक
इस्तिआरे ज़मीन से जाएँ
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
शायद वो भूली-बिसरी न हो आरज़ू कोई