बिखरा बिखरा सा साज़-ओ-सामाँ है
हम कहीं दिल कहीं अक़ीदा कहीं
Mir Taqi Mir
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Wasi Shah
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Jaun Eliya
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इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
ख़ौफ़ इक बुलंदी से पस्तियों में रुलने का
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
कुछ तो ऐसे हैं कि जिन से फिर मिला जाता नहीं
धूप सी उम्र बसर करना है
इस तरह सजा रक्खे हैं मैं ने दर-ओ-दीवार
दिल सँभाले नहीं सँभलता है
वो तमाशा आप की जादू-बयानी से हुआ
गो तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी शामिल हैं कई दुख
इस्तिआरे ज़मीन से जाएँ
शायद वो भूली-बिसरी न हो आरज़ू कोई
मैं भी शायद आप को तन्हा मिलों