दर कुंज-ए-सदा-बंद का खोलेंगे किसी रोज़
हम लोग जो ख़ामोश हैं बोलेंगे किसी रोज़
Mohsin Naqvi
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धूप सी उम्र बसर करना है
सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
पुराने घर में नया घर बसाना चाहता है
ज़ेहन में याद के घर टूटने लगते हैं 'शहाब'
होते होते मैं पहुँच जाता हूँ अपने आप तक
अपनी कश्ती सर पे रख कर चल रहे हैं हम 'शहाब'
बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई
ख़ौफ़ इक बुलंदी से पस्तियों में रुलने का
कहा था मैं ने खो कर भी तुझे ज़िंदा रहूँगा
इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही
मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर