होते होते मैं पहुँच जाता हूँ अपने आप तक
इस से आगे और कोई रास्ता जाता नहीं
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मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर
दर कुंज-ए-सदा-बंद का खोलेंगे किसी रोज़
कार-ए-ज़िंदगानी के शोर-ओ-शर में मुद्दत से
इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
क़लम भी रौशनाई दे रहा है
कैसे पता चलेगा अगर सामना न हो
हम किसी साया-ए-दीवार में आ बैठे हैं
कुछ तो ऐसे हैं कि जिन से फिर मिला जाता नहीं
सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
गो तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी शामिल हैं कई दुख
बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई