हम में और परिंदों में फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है
दस्त-ओ-पा मिले हम को बाल-ओ-पर परिंदों को
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रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
ऐसा भी कभी हो मैं जिसे ख़्वाब में देखूँ
मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर
मैं भी शायद आप को तन्हा मिलों
धूप सी उम्र बसर करना है
सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
होते होते मैं पहुँच जाता हूँ अपने आप तक
दिल सँभाले नहीं सँभलता है
कार-ए-ज़िंदगानी के शोर-ओ-शर में मुद्दत से
इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही
जब उस ने आने का इक दिन इधर इरादा किया
क़लम भी रौशनाई दे रहा है