कहा था मैं ने खो कर भी तुझे ज़िंदा रहूँगा
वो ऐसा झूट था जिस को निभाना पड़ गया है
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फूल ने मुरझाते मुरझाते कहा आहिस्ता से
मैं सच से गुरेज़ाँ हूँ और झूट पे नादिम हूँ
शायद वो भूली-बिसरी न हो आरज़ू कोई
मैं भी शायद आप को तन्हा मिलों
अपनी कश्ती सर पे रख कर चल रहे हैं हम 'शहाब'
पुराने घर में नया घर बसाना चाहता है
किसी ने भी उसे देखा नहीं है
इक इंक़लाब कि यकसर था उस के जाते ही
सुब्ह तक जाने कहाँ मुझ को उड़ा कर ले जाए
इस्तिआरे ज़मीन से जाएँ
कार-ए-ज़िंदगानी के शोर-ओ-शर में मुद्दत से
उसे देखा तो हर बे-चेहरगी कासा उठा लाई