कार-ए-ज़िंदगानी के शोर-ओ-शर में मुद्दत से
उस को भूल जाने का एहतिमाल रहता है
Habib Jalib
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रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
ख़ौफ़ इक बुलंदी से पस्तियों में रुलने का
शायद वो भूली-बिसरी न हो आरज़ू कोई
कुछ तो ऐसे हैं कि जिन से फिर मिला जाता नहीं
इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
मैं सच से गुरेज़ाँ हूँ और झूट पे नादिम हूँ
क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
फूल ने मुरझाते मुरझाते कहा आहिस्ता से
अक्स देखा तो लगा कोई कमी है मुझ में
कहा था मैं ने खो कर भी तुझे ज़िंदा रहूँगा
हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर