मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर
ये और बात है कि सफ़र हो गए तमाम
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ख़ौफ़ इक बुलंदी से पस्तियों में रुलने का
इक शम्अ का साया था कि मेहराब में डूबा
बिछड़ा वो मुझ से ऐसे न बिछड़े कभी कोई
बिखरा बिखरा सा साज़-ओ-सामाँ है
क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
गो तर्क-ए-तअल्लुक़ में भी शामिल हैं कई दुख
हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
मैं सच से गुरेज़ाँ हूँ और झूट पे नादिम हूँ
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
दिल सँभाले नहीं सँभलता है
छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा
दर कुंज-ए-सदा-बंद का खोलेंगे किसी रोज़