शायद वो भूली-बिसरी न हो आरज़ू कोई
कुछ और भी कमी सी है तेरी कमी के साथ
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क़दम क़दम पर तुम्हारी यूँ तो इनायतें भी बहुत हुइ हैं
इस तरह सजा रक्खे हैं मैं ने दर-ओ-दीवार
दिल सँभाले नहीं सँभलता है
किसी ने भी उसे देखा नहीं है
इस्तिआरे ज़मीन से जाएँ
रात रौशन न हुई काहकशाँ होते हुए
हक़ीक़त को तमाशे से जुदा करने की ख़ातिर
मैं और मेरा शौक़-ए-सफ़र साथ हैं मगर
अक्स देखा तो लगा कोई कमी है मुझ में
छू के गुज़रा मुझे ज़माना सा
होते होते मैं पहुँच जाता हूँ अपने आप तक