दीवारों पे क्या लिक्खा है
शहर का शहर ही सोच रहा है
ग़म की अपनी ही शक्लें हैं
दर्द का अपना ही चेहरा है
इश्क़ कहानी बस इतनी है
क़ैस की आँखों में सहरा है
कूज़ा-गर ने मिट्टी गूंधी
चाक पे कोई और धरा है
'अम्बर' तेरे ख़्वाब अधूरे
ताबीरों का बस धोका है
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मुझ में सोए हुए माहताब से कम वाक़िफ़ है
आँखों को इक ख़्वाब दिखाया जा सकता है
बांदियाँ
हम को आग़ाज़-ए-सफ़र मारता है
ज़मीं लपेटता है आसमाँ समेटता है
हिजरत
क्यूँ मैं बार-ए-दिगर जाऊँ
वो घर तिनकों से बनवाया गया है
इश्क़ की कोई तफ़्सीर थी ही नहीं