वक़्त का सिलसिला नहीं रुकता
लाख रोको ज़रा नहीं रुकता
ये ज़मीं है ख़ुदाओं का मदफ़न
आदम-ए-कज-अदा नहीं रुकता
इश्क़ वो चार सू सफ़र है जहाँ
कोई भी रास्ता नहीं रुकता
रफ़्तगाँ आईना दिखाता है
कुछ भी हो इर्तिक़ा नहीं रुकता
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मुझे रिफ़अ'तों का ख़ुमार था सो नहीं रहा
गिन रहे हैं दिल-ए-नाकाम के दिन
मंज़िल है तो इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है
हर सच बात में हम दोनों हैं
जितनी आँखें थीं सारी मेरी थीं
मान टूटे तो फिर नहीं जुड़ता
इश्क़ तू भी ज़रा टिका ले कमर
चश्म-ओ-दिल साहब-ए-गुफ़्तार हुए जाते हैं
अगर तुम फ़र्ज़ कर लो
जो उस आँख से निकला होगा
वो मिरे दिल में यूँ समा के गई
वो