न जाने क्यूँ
मुझे अक्सर गुमान होता है
मह-ए-तमाम फ़क़त देखता नहीं है हमें
वो जब्र-ओ-क़ैद-ए-मुसलसल पे इक मशक़्क़त की
हज़ारों साल से इस बे-कराँ मसाफ़त की
बिसात-ए-वक़्त की
इक दास्ताँ सुनाता है
समझ सकें तो
बहुत कुछ हमें बताता है
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आवेज़े
मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर
फ़ैसला हो गया है रात गए
मान टूटे तो फिर नहीं जुड़ता
माँ
गिन रहे हैं दिल-ए-नाकाम के दिन
चश्म-ओ-दिल साहब-ए-गुफ़्तार हुए जाते हैं
अगर तुम फ़र्ज़ कर लो
शुऊर-ए-ज़ात के साँचे में ढलना चाहता हूँ
मुझे रिफ़अ'तों का ख़ुमार था सो नहीं रहा
माह-ए-तमाम
वक़्त का सिलसिला नहीं रुकता