एक मंज़िल है मुख़्तलिफ़ राहें
रंग हैं बे-शुमार फूलों के
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किसी महल में न शाहों की आन-बान में है
चश्म-ओ-दिल साहब-ए-गुफ़्तार हुए जाते हैं
मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर
हर सच बात में हम दोनों हैं
जो उस आँख से निकला होगा
ये जानता है पलट कर उसे नहीं आना
बिखरा है कई बार समेटा है कई बार
जफ़ा-ए-अहद का इल्ज़ाम उलट भी सकता हूँ
शुऊर-ए-ज़ात के साँचे में ढलना चाहता हूँ
मोहब्बत में ख़ुदा भी मुब्तला है
वो
गिन रहे हैं दिल-ए-नाकाम के दिन