मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर
ख़ुद अपने से गिला करता रहा हूँ
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अगर तुम फ़र्ज़ कर लो
मोहब्बत में ख़ुदा भी मुब्तला है
ग़ैर के घर सही वो आया तो
इश्क़ तू भी ज़रा टिका ले कमर
चश्म-ओ-दिल साहब-ए-गुफ़्तार हुए जाते हैं
हुस्न मंज़र में नहीं है
तेरी आँखों के दो सितारे थे
मान टूटे तो फिर नहीं जुड़ता
मंज़िल है कि इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है
फ़ैसला हो गया है रात गए
माँ