या हुस्न है ना-वाक़िफ़-ए-पिंदार-ए-मोहब्बत
या इश्क़ ही आसानी-ए-अतवार में गुम है
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मंज़िल है कि इक रस्ता-ए-दुश्वार में गुम है
फ़ैसला हो गया है रात गए
इश्क़ वो चार सू सफ़र है जहाँ
मोहब्बत में ख़ुदा भी मुब्तला है
जफ़ा-ए-अहद का इल्ज़ाम उलट भी सकता हूँ
हर सच बात में हम दोनों हैं
मोहब्बत जीत सकती थी
ये जानता है पलट कर उसे नहीं आना
वक़्त का सिलसिला नहीं रुकता
माँ
मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर
हो गए हम शिकार फूलों के