ये जानता है पलट कर उसे नहीं आना
वो अपनी ज़ीस्त की खिंचती हुई कमान में है
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आवेज़े
मैं ख़ुद को सामने तेरे बिठा कर
सामने अपने तू बुला के तो देख
चश्म-ओ-दिल साहब-ए-गुफ़्तार हुए जाते हैं
वो मिरे दिल में यूँ समा के गई
माँ
हो गए हम शिकार फूलों के
लोग लड़ते रहे नाम आए तलब-गारों में
वक़्त पर इश्क़-ए-ज़ुलेख़ा का असर लगता है
इश्क़ वो चार सू सफ़र है जहाँ
मोहब्बत में ख़ुदा भी मुब्तला है
वो