बसर करे जो मुजाहिदाना हयात उसे दाइमी मिलेगी
न भीक में ज़िंदगी मिली है न भीक में ज़िंदगी मिलेगी
Wasi Shah
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Gulzar
Faiz Ahmad Faiz
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वो दिन गुज़रे कि जब ये ज़िंदगानी इक कहानी थी
कुछ हुस्न के फ़साने तरतीब दे रहा हूँ
बरसों से तिरा ज़िक्र तिरा नाम नहीं है
ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश
आ दोस्त साथ आ दर-ए-माज़ी से माँग लाएँ
बहार हो कि मौज-ए-मय कि तब्अ की रवानियाँ
अब भी जो लोग सर-ए-दार नज़र आते हैं
छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना
ये दिल वालों से पूछो इस को दिल वाले समझते हैं
मौज-ए-तख़य्युल गुल का तबस्सुम परतव-ए-शबनम बिजली का साया
ले के दिल कहते हो उल्फ़त क्या है
ऐ अक़्ल साथ रह कि पड़ेगा तुझी से काम