छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना
कली कली हुस्न की कहानी नज़र नज़र इश्क़ का फ़साना
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सुन ऐ कोह-ओ-दमन को सब्ज़ ख़िलअत बख़्शने वाले
कल जो ज़िक्र-ए-जाम-ओ-मीना आ गया
बसर करे जो मुजाहिदाना हयात उसे दाइमी मिलेगी
शौक़ कितने फ़रेब देता है
ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश
यक़ीनन रहबर-ए-मंज़िल कहीं पर रास्ता भूला
कितने पुर-हौल अँधेरों से गुज़र कर ऐ दोस्त
नाहीद ओ क़मर ने रातों के अहवाल को रौशन कर तो दिया
क़फ़स भी है यहाँ सय्याद भी गुलचीं भी काँटे भी
अब भी जो लोग सर-ए-दार नज़र आते हैं
दिल में क्या क्या गुमाँ गुज़रते हैं