क़फ़स भी है यहाँ सय्याद भी गुलचीं भी काँटे भी
चमन को हम समझते हैं मगर अपना चमन अब तक
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आ दोस्त साथ आ दर-ए-माज़ी से माँग लाएँ
ये भी हुआ कि दर न तिरा कर सके तलाश
ले के दिल कहते हो उल्फ़त क्या है
शौक़ कितने फ़रेब देता है
निगाहों से ना-आश्ना चंद जल्वे
बरसों से तिरा ज़िक्र तिरा नाम नहीं है
कल जो ज़िक्र-ए-जाम-ओ-मीना आ गया
मौज-ए-तख़य्युल गुल का तबस्सुम परतव-ए-शबनम बिजली का साया
कुछ हुस्न के फ़साने तरतीब दे रहा हूँ
अफ़सोस किसी से मिट न सकी इंसान के दिल की तिश्ना-लबी
छुपे तो कैसे छुपे चमन में मिरा तिरा रब्त-ए-वालिहाना