बच्चा मजबूरियों को क्या जाने
इक खिलौना ख़रीदना था मुझे
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रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
शफ़क़ का रंग का ख़ुशबू का ख़्वाब था मैं भी
कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
शफ़क़ सी फिर कोई उतरी है मुझ में
बोलते रहते हैं नुक़ूश उस के
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
मिरे चराग़ की नन्ही सी लौ से ख़ाइफ़ है
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
वो गुलाबी बादलों में एक नीली झील सी
हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर