भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले
याद ख़ुद को भी न मैं आऊँ कुछ ऐसा कर दे
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झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
लहू उछालते लम्हों का सिलसिला निकला
मिरे चराग़ की नन्ही सी लौ से ख़ाइफ़ है
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी
मिलना पड़ता है हमें ख़ुद से भी ग़ैरों की तरह
क्यूँ फ़लक-आश्ना किया था मुझे
चाँद की कश्ती सजी है और मैं
बच्चा मजबूरियों को क्या जाने
शफ़क़ का रंग का ख़ुशबू का ख़्वाब था मैं भी
हर शख़्स अपनी अपनी जगह यूँ है मुतमइन
हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था