बोलते रहते हैं नुक़ूश उस के
फिर भी वो शख़्स कम-सुख़न है बहुत
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चाँद की कश्ती सजी है और मैं
इक क़िस्म और ज़िंदा रहने की
मिलना पड़ता है हमें ख़ुद से भी ग़ैरों की तरह
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी
मिरे ग़ुबार-ए-सफ़र का मआल रौशन है
मैं अजनबी हूँ मगर तुम कभी जो सोचोगे
हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर
कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
हुस्न उतना एक पैकर मैं सिमट सकता नहीं
वो गुलाबी बादलों में एक नीली झील सी