दिलों के बीच की दीवार गिर भी सकती थी
किसी ने काम लिया ही नहीं तदब्बुर से
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शफ़क़ सी फिर कोई उतरी है मुझ में
मिलना पड़ता है हमें ख़ुद से भी ग़ैरों की तरह
चाँद की कश्ती सजी है और मैं
मैं अजनबी हूँ मगर तुम कभी जो सोचोगे
बच्चा मजबूरियों को क्या जाने
हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर
ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
हुस्न उतना एक पैकर मैं सिमट सकता नहीं
रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
कुछ नौ-जवान शहर से आए हैं लौट कर