हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर
चुप हैं लेकिन सबब समझते हैं
Faiz Ahmad Faiz
Gulzar
Allama Iqbal
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Jaun Eliya
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ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
कुछ नौ-जवान शहर से आए हैं लौट कर
वो गुलाबी बादलों में एक नीली झील सी
बच्चा मजबूरियों को क्या जाने
शफ़क़ सी फिर कोई उतरी है मुझ में
मिलना पड़ता है हमें ख़ुद से भी ग़ैरों की तरह
नक़्श-ए-पा उस के रास्ता उस का
कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
दिलों के बीच की दीवार गिर भी सकती थी
मिरे ग़ुबार-ए-सफ़र का मआल रौशन है
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी