हुस्न उतना एक पैकर मैं सिमट सकता नहीं
तू भी मेरे ही किसी एहसास की तस्वीर है
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रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
शफ़क़ सी फिर कोई उतरी है मुझ में
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी
हर शख़्स अपनी अपनी जगह यूँ है मुतमइन
कितने ज़ेहनों को कर गया गुमराह
बोलते रहते हैं नुक़ूश उस के
कुछ नौ-जवान शहर से आए हैं लौट कर
दिलों के बीच की दीवार गिर भी सकती थी
मिलना पड़ता है हमें ख़ुद से भी ग़ैरों की तरह
कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले