कुछ नौ-जवान शहर से आए हैं लौट कर
अब दाव पर लगी हुई इज़्ज़त है गाँव की
Mir Taqi Mir
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Gulzar
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वो गुलाबी बादलों में एक नीली झील सी
लहू उछालते लम्हों का सिलसिला निकला
हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर
क्यूँ फ़लक-आश्ना किया था मुझे
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे
बोलते रहते हैं नुक़ूश उस के
दिलों के बीच की दीवार गिर भी सकती थी
कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
कितने ज़ेहनों को कर गया गुमराह
मैं अजनबी हूँ मगर तुम कभी जो सोचोगे