मैं अजनबी हूँ मगर तुम कभी जो सोचोगे
कोई क़रीब का रिश्ता ज़रूर निकलेगा
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दिलों के बीच की दीवार गिर भी सकती थी
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी
नक़्श-ए-पा उस के रास्ता उस का
मिरे ग़ुबार-ए-सफ़र का मआल रौशन है
झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
हर शख़्स अपनी अपनी जगह यूँ है मुतमइन
भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले
मिरे चराग़ की नन्ही सी लौ से ख़ाइफ़ है
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
शफ़क़ का रंग का ख़ुशबू का ख़्वाब था मैं भी