मिरे चराग़ की नन्ही सी लौ से ख़ाइफ़ है
अजीब वक़्त पड़ा है सियाह आँधी पर
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हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
कितने ज़ेहनों को कर गया गुमराह
भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले
क्यूँ फ़लक-आश्ना किया था मुझे
नक़्श-ए-पा उस के रास्ता उस का
चाँद की कश्ती सजी है और मैं
इक क़िस्म और ज़िंदा रहने की
मिलना पड़ता है हमें ख़ुद से भी ग़ैरों की तरह
बच्चा मजबूरियों को क्या जाने