मिलना पड़ता है हमें ख़ुद से भी ग़ैरों की तरह
उस ने माहौल ही कुछ ऐसा बना रक्खा है
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वो अंधी राह में बीनाइयाँ बिछाता रहा
शफ़क़ का रंग का ख़ुशबू का ख़्वाब था मैं भी
कुछ नौ-जवान शहर से आए हैं लौट कर
शफ़क़ सी फिर कोई उतरी है मुझ में
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
लहू उछालते लम्हों का सिलसिला निकला
झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
हुस्न उतना एक पैकर मैं सिमट सकता नहीं
ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे