रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
सुब्ह के अख़बार में हालात बेहतर हो गए
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कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
इक क़िस्म और ज़िंदा रहने की
झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
पलक पलक सैल-ए-ग़म अयाँ है न कोई आहट न कोई हलचल
ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे
लहू उछालते लम्हों का सिलसिला निकला
मैं अजनबी हूँ मगर तुम कभी जो सोचोगे
भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले
हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी