शफ़क़ सी फिर कोई उतरी है मुझ में
ये कैसी रौशनी फैली है मुझ में
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ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे
वो गुलाबी बादलों में एक नीली झील सी
रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
दिलों के बीच की दीवार गिर भी सकती थी
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी
बोलते रहते हैं नुक़ूश उस के
शफ़क़ का रंग का ख़ुशबू का ख़्वाब था मैं भी
बच्चा मजबूरियों को क्या जाने
वो अंधी राह में बीनाइयाँ बिछाता रहा
इक क़िस्म और ज़िंदा रहने की