उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी
न जाने फूल ने क्या कह दिया था तितली से
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बच्चा मजबूरियों को क्या जाने
मिरे ग़ुबार-ए-सफ़र का मआल रौशन है
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
इक क़िस्म और ज़िंदा रहने की
चाँद की कश्ती सजी है और मैं
हर शख़्स अपनी अपनी जगह यूँ है मुतमइन
नक़्श-ए-पा उस के रास्ता उस का
भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले
शफ़क़ का रंग का ख़ुशबू का ख़्वाब था मैं भी
क़ानून जैसे खो चुका सदियों का ए'तिमाद
बोलते रहते हैं नुक़ूश उस के
झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा