वो अंधी राह में बीनाइयाँ बिछाता रहा
बदन पे ज़ख़्म लिए और लबों पे दीन लिए
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झील के पार धनक-रंग समाँ है कैसा
क़ानून जैसे खो चुका सदियों का ए'तिमाद
उजाड़ तपती हुई राह में भटकने लगी
वो गुलाबी बादलों में एक नीली झील सी
भूल जाने का मुझे मशवरा देने वाले
ढूँडने वाले ग़लत-फ़हमी मैं थे
दिलों के बीच की दीवार गिर भी सकती थी
वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
शफ़क़ का रंग का ख़ुशबू का ख़्वाब था मैं भी
मिलना पड़ता है हमें ख़ुद से भी ग़ैरों की तरह
हुस्न उतना एक पैकर मैं सिमट सकता नहीं
चाँद की कश्ती सजी है और मैं