वो पता अपनी शाख़ से ज़रा जुदा हुआ ही था
न जाने फिर कहाँ कहाँ हवा उड़ा के ले गई
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कुछ एहतियात परिंदे भी रखना भूल गए
हुस्न उतना एक पैकर मैं सिमट सकता नहीं
कुछ नौ-जवान शहर से आए हैं लौट कर
क़ानून जैसे खो चुका सदियों का ए'तिमाद
हम तिरी तल्ख़ गुफ़्तुगू सुन कर
बच्चा मजबूरियों को क्या जाने
मिरे चराग़ की नन्ही सी लौ से ख़ाइफ़ है
शफ़क़ सी फिर कोई उतरी है मुझ में
वो गुलाबी बादलों में एक नीली झील सी
रात के लम्हात ख़ूनी दास्ताँ लिखते रहे
हर शख़्स अपनी अपनी जगह यूँ है मुतमइन