है जुदा सज्दा की जा हिन्दू मुसलमाँ की मगर
फ़हम वालों के तईं दैर-ओ-हरम दोनों एक
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ऐ दिल अब इश्क़ की लै-गोई और चौगान में आ
क्या फ़रोग़-ए-बज़्म उस मह-रू का शब सद-रंग था
रखता है अपने हुस्न पर वो दिल रुबा घमंड
मुझ को तो शराब से मस्ती है और
हम न महज़ूज़ हुए हैं किसी शय से ऐसे
कहाँ का नंग रहा और और कहाँ रहा नामूस
जो मेरा ले गया दिल कौन वो इंसान है क्या है
काम है मतलब से चाहे कुफ़्र होवे या कि दीं
कुछ अपने काम नहीं आवे जाम-ए-जम की किताब
जब किसी ने आन कर दिल से मिरे पुरख़ाश की
जी रहे या न रहे हर क़दम-ए-यार न छोड़
आशिक़-ए-सोख़्ता-दिल ख़त्त-ए-सनम दोनों एक