शैख़ मुझ को न डरा अपनी मुसलमानी थाम
हम फ़क़ीरों का किसी रंग से ईमान न जाए
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ख़त्त-ए-आज़ादी लिखा था शोख़ ने फ़र्दा ग़लत
अब्र साँ हर-चंद रक्खा चश्म को पुर-आब हम
फ़ासिक़ जो अगर आशिक़-ए-दीवाना हुआ तो क्या
फेर रोज़-ए-फ़िराक़-ए-यार आया
जिस तरह कूचे में तेरे फिरते हैं हम बर-तरफ़
ये मुश्त-ए-ख़ाक अपने को जहाँ चाहे तहाँ ले जा
मोहब्बत मा-सिवा की जिस ने की गोरी कलोटी की
लब-ए-शीरीं से अगर हो न तेरा लब शीरीं
अपने जानान को ऐ जान इसी जान में ढूँढ
क्या फ़रोग़-ए-बज़्म उस मह-रू का शब सद-रंग था
हम न महज़ूज़ हुए हैं किसी शय से ऐसे
जता न मेरे तईं अपना तू हुनर वाइ'ज़